Wednesday, 19 February 2025

हम - तुम खुश रहे

उसने , उससे कहा 
मैं तुम्हारें लिए जान भी दे सकता हूँ 
जान देने की नहीं जिंदा रहना है मेरे लिए 
आकाश से चांद- तारें तोड़कर ला सकता हूँ 
नहीं उसकी जरूरत नहीं
राशन - पानी , सब्जी- दूध ले आओ
दुनिया से लड़ सकता हूँ 
दुनिया से  लड़ो नहीं बचाव करों
राह में फूल बिछा दूंगा 
राह में हाथ पकड़कर साथ- साथ चलो
तुम्हें अपने सर पर बैठाकर रखूंगा 
सर पर नहीं घर में बैठाकर रखो
तुम्हें महारानी बनाकर रखूगा 
महारानी नहीं संगिनी बनाकर रखो 
पलकों पर बिठाउंगा
दिल में बिठाकर रखो
तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ दूंगा 
छोड़ना नहीं जोड़ना है 
त्यागना नहीं अपनाना है 
सात जन्मों का वादा मत करो
किसने देखा है 
इसी जनम में साथ निभाओ 
सारे जहां की खुशियां तुम्हारे  कदमों में
जहां की खुशियां नहीं
बस हम - तुम खुश रहे 


बस यादें रह जानी है

कुछ तो बोलो 
कितना चुप रहते हो 
जरा बैठ बतियायों 
कुछ गुफ्तगू करो 
कुछ अपनी कहो कुछ हमारी सुनो 
कभी तो खिलखिलाकर हंसो 
चेहरे पर मुस्कान बिखेरो  
इतनी चुप्पी ठीक नहीं
कब तक मन को दबाकर रखोगे 
जरा मन खोलकर तो देखो 
कितना सुकून मिलता है 
कितना भावनाओं को छिपाओगे 
जरा भावनाओं को बहने तो दो 
उनको दबाना ठीक नहीं 
नासूर बन जाएगा 
क्या फायदा वैसे प्रेम का 
मन में तो भरा है 
उसका इजहार करना नहीं आता 
अब तो छोड़ो सब
जीवन को खुलकर जी लो 
पता नहीं कितने दिन रहना है 
कुछ प्यारे पलों को याद कर लो 
अपनों में प्यार बांट लो 
बस बाद में तो यह यादें रह जानी है 

Monday, 17 February 2025

शबरी

मतंग त्रृषि की शिष्या 
छोटी जाति और कुल
भक्ति में लीन 
बरसों किया राम का इंतजार 
हर रोज स्वागत की तैयारी 
बुहारती पोछती सजाती कुटिया 
फूलों को बिछाती राह में
कभी न हार मानी 
न कभी आलस किया 
बस आशा लगाई और प्रतीक्षा की 
पगली समझी गई 
हंसी उड़ाई गई 
पर वह न डगमगाई 
विश्वास जो था अपने प्रभु पर
बचपन से बुढ़ापा आ गया
शबरी की सोच नहीं बदली 
अगर सीता का हरण नहीं होता तो 
शबरी की प्रतीक्षा व्यर्थ जाती 
नहीं कभी नहीं 
राम को तो हर हाल में आना था 
उत्तर से दक्षिण उस बूढ़ी माई से मिलने 
विश्वास जो था उस भक्त का 
उसको कैसे तोड़ते 
उसके जूठे बेरों को खाना था 
कौन इतने प्रेम से उनको अपना जूठा खिलाता
बड़े - बड़े पकवानों का भोग में वह स्वाद कहाँ
लोग कुछ समय इंतजार नहीं कर सकते 
शबरी ने तो पूरी उम्र उसी में गुजार दी 
बस मेरे राम आएगे 
शबरी राम को ढूँढने नहीं गई 
राम को ढूँढते हुए आना पड़ा
वह अपनी कुटिया में बाट जोहती  रही 
सही भी है 
कहते हैं ना 
कौन कहता भगवान आते नहीं 
शबरी सा तुम बुलाओ  तो सही 


आज क्या लिखना है

आज क्या लिखना है 
नहीं कुछ नहीं लिखना है 
आज लेखनी को विराम 
सोचते है हर दिन 
होता नहीं है 
कुछ न कुछ मोबाइल देखते - देखते विचार जेहन में आ ही जाता है 
अब आया है तो उनको समक्ष लाना है 
भाव व्यक्त करना है 
अपने आप उंगलियाँ टिपटिपाने लगती है
अक्षर उकेरने लगते हैं
भाव आते रहते हैं 
शब्द और वाक्य बनते रहते हैं 
यह सब स्वाभाविक होता है 
कोई प्रयास नहीं 
आदत जो है लिखने की 
खुराक है वह एक तरह से 
आदत कहाँ जल्दी छूटती है 
दिल भी कहाँ मानता है