सपनों की नगरी में हम अपना गाँव छोड़ आए थे
कुछ बनने का
कुछ करने का
बडे बडे से ख्वाब थे
बडी बडी ख्वाहिशे थी
आज सब धराशायी हो गए
जहाँ से आए थे
फिर वही चल दिए
कम से कम नमक रोटी तो मिल ही जाएंगी
घर पर छत तो होगी
किराए के घर में तो न रहना पडेगा
खुली आसमान में सांस तो ले सकेंगे
जब खाना न हो
घर न हो
तब ख्वाब भी क्या देखना
पेट भरा हो
तब सब हरा हरा
बस अब बहुत हो गया
अब नहीं लौटने वाले
वही खेती किसानी कर लेंगे
इस गुलामी में अब न लौटेगे
अब तो चल दिए हैं
पैदल ही
यह राह वही पर खत्म होगी
जहाँ से उसे छोड़ आए थे
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Monday, 11 May 2020
अब न लौटेगे
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