Saturday, 4 June 2016

धरती मॉ की पुकार ,मत करो अत्याचार

मैं माता हूँ तुम्हारी
मानव तुम मेरे सबसे प्यारे और बुद्धिमान पुत्र हो
मुझे तुम पर गर्व था पर
आज क्या हो रहा है
तुम मद ,अभिमान और स्वार्थ में आकर अपने ही सहयोगियों और भाई - बंधुओं को खत्म कर रहे हो
तुम्हारी तरह ये पेड- पौधे ,पशु- पक्षी भी मेरी ही संतान है
तुम इन्हें ही खत्म कर रहे हो
एक मॉ के बच्चों पर जुल्म ढा रहे हो
उन्हें काट रहे हो ,मार रहे हो
सोचो यह सब देख कर मुझे कितना दुख होता होगा
मॉ अपनी संतान को खुश देखना चाहती है
उनका लंबा और स्वस्थ जीवन चाहती है
पर तुम तो दूसरों को नष्ट कर ही रहे हो
अपने पैरों पर भी कुल्हाडी मार रहे हो
मौत और बीमारियों को निमंत्रण दे रहे हो
मैं यह सब घुट - घुटकर देख रही हूं
तुम मेरा दिल हो तो यह वृक्ष मेरे हाथ- पैर है
मैं इनको कटते कैसे देख सकती हूँ.
तुम इन पर कुल्हाडी चलाते हो तो वह मुझे ही लगती है
मैं जार - जार रोती हूँ ,हदय फटता है
तुमको विनाश के रास्ते पर जाते देख रही हूँ
पानी के लिए तडपते देखती हूँ ,जो सहन नहीं होता
तुमको तो अपनी मॉ का ही ख्याल नहीं है
अपने लाभ के लिए मुझे भी पाट रहे हो
नदी ,समुद्र कोई भी तो नहीं बचा तुमसे
तुमने तो अभी अपनी मॉ का रौद्र रूप नहीं देखा है
कभी - कभी ही क्रोधित होती हूँ
जरा सा हिलने पर तो भूकंप आ जाता है
तबाही मच जाती है
ज्यादा हुआ तब तो कोई नहीं बचेगा
उस समय भी सबसे ज्यादा दुख मुझे ही होगा
आखिर मैं मॉ हूँ
सभी संतानों को खुशी और साथ- साथ देखना चाहती हूं ,   विनंती है    - हे पु्त्र मानव
मत करों अत्याचार. , यह है एक मॉ की गुहार

No comments:

Post a Comment