बकरीद का त्योहार ,खुशियों की बरसात
किसकी जान लेकर
किसी बेजुबान का कत्ल कर
कुरबानी के नाम पर निरीह जानवर की हत्या
उसका खून और तडपता देखकर खुशी
खून बहाना ,मांस बॉटना
क्यों इतना निर्दय दिल को बना देना
तडपन देख शॉति मिलना.
कहीं छत पर खून तो कहीं गली - चौराहों पर
आज जमाना बदल रहा है
शिकार करना यह आदिम युग की बात है
आज वह अपराध है
पहले हिन्दूओं में भी बलि प्रथा थी
पर आज वह खत्म ही हो गई है
अब लोग प्रतीक रूप में सुपारी या कोई फल काटकर बलि की प्रथा पूरी करते हैं
नवरात्र में दुर्गा को बलि देने की प्रथा उत्तर भारत में थी
पहले तलवारबाजी होती थी कबीलों में
आज वह खत्म हो गई है
हॉ उसकी जगह आंतकवाद के नाम पर मानव की हानि हो रही है
चॉद तो शीतल है और उसे देखकर बलि देना
तो दूसरी जगह उसे देख लम्बी उम्र की दुआ मांगना
समय बदल रहा है तो परम्पराए क्यों नहीं
रूढी से हटकर काम करना
उस समय की परिस्थितियॉ और आज की अलग
फिर से सोचे कुर्बानी से पहले.
जान लेने के लिए नहीं
जीने का अधिकार हर जीव का
जीओ और जीने दो
मानव बनो
हर जीव का रक्षण करो
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