जुल्फ घनी लहरा रही ,चेहरे पर घटा बन छा रही
मतवाली हुई जा रही
नीला आकाश ,प्रकृति का सानिध्धय
पाकर ये भी अपना आपा खो रही
घनी काली घटाएं घिर आ रही
नदी बल खाती आगे बढ रही
पूरे शबाब पर उफनती ,सारे बंधन पार करती
न जाने कौन- कौन से मोड से निकलती
इन्हें देख लटाएं भी इतरा रही
अपनी खूबसूरती पर मचल- मचल जा रही
बार- बार आती है ,चेहरे पर छाती है
नयनों को भी ढक लेती है
ओठों पर मस्त अठखेलियॉ खेलती है
अपने - आप पर ही मोहित हुई जा रही
मानो यह भी कह रही हो
हमें बांधो मत ,उडने दो
उडकर सौंदर्य को महकने दो
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