Saturday, 12 November 2016

बेटी बन कर आई तू अपने ही घर

नोन - मिर्च और लौंग का धार उतारू मैं तुझ पर
नजर न लगे और ऑच न आए तुझ पर
क्यों हुई बावरी
यह घर नहीं पराया है तेरा अपना
महावर से रंगा पैर पडा घर में
घर हो गया खुशहाल
हल्दी का पीला रंग  भर रहा उजास
सोने से लकदक हो रहा सब जगमग
क्यों भय है इन ऑखों में
यहॉ सब तो है तेरे अपने ही
मत संकोच कर मुझसे
मैं भी हूँ बेटी की मॉ
अपना घर छोड मैं भी कभी आई थी इस घर
इसी घर की बन रही
यही मेरी छत्रछाया बना
मान- सम्मान और प्यार मिला
आज यह घर फिर बुला रहा है प्रेम से तुझे
तेरे दर्शन को आतुर है
तू इस घर की लक्षमी है
और यह तेरा असली रैन- बसेरा है
मत घबरा संसार की यही रीत है
बेटी को एक नहीं दो घर की बेटी बनना है
दोनों फर्ज निभाना है
ससुराल को भी अपना ही घर समझना है

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