जिंदा रहते जिसकी आलोचना
मृत्यु पर उसी की प्रंशसा???
जीते- जी तो जीवन दूभर
लडाई- झगडा ,कोर्ट- कचहरी
शॉति से सॉस लेना मुश्किल
यह है समाज का रवैया
जीवन को नर्क बनाने में कोई कसर नहीं
बाहर निकलना मुश्किल .
तानों और व्यंग की बौछार
इतना परेशान कि व्यक्ति टूट जाय
कभी - कभी तो उसकी भी सजा
जो उसने किया ही नहीं!!
हर किसी के पास झेलने का शक्ति नहीं
कुछ टूट जाते हैं
कुछ बिखर जाते हैं
कुछ जीते- जी मर जाते हैं
कुछ सच में मर जाते हैं
मरने पर मातम मनाना
घडियाली ऑसू बहाना
दिखावा करना
यही इंसान की फितरत बन गई है
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