Tuesday, 4 July 2017

अबकी बार भी बरसा पानी

अबकी बार भी बदरा आए
घनघोर घटा भी छाई
झम- झम बरसात भी हुई
हर साल मानसून आता है और जाता है
मन भी मचलता है भीगने को
बारीश के पानी में छप- छप करने को
मन तो वही है ,मौसम भी वही है
पर हम ,हम नहीं है
बचपन तो पीछे छूट गया
वह कागज की कश्ती  की जगह कागज के नोट हो गए
सागर भी वही ,उसकी लहरे भी वही
पर अब सागर की लहरों का थपेडा नहीं
साथी भी वही ,हम भी वही
पर अब पानी में मचलना नहीं
यौवन तो पीछे छूट गया
बूंदे भी वही पर उनको हाथ में रोपना नहीं
लरजते है हाथ
कॉपते हैं पैर
ठिठुरता है शरीर
बरसात तो वही पर हम नहीं
खुले केशों से गालों पर फिसलती बूंदे
मुँह बाकर बरसात की बूंदों को गटकती
केश तो वही है पर वह घनेरे काले नहीं
न चेहरे पर बिखरते हुए
ऑखे भी तो वही है
पर अब तो वह भी धुंधलाती है
बूंदों को स्पष्ट नहीं देख पाती
मन को हर्षित तो करती है
पर फिर भी कहती है भीगना नहीं है
बारीश तो वही है पर हम   वो    हम नहीं है

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