आज फिर इतिहास के झरोखों से रानी पद्मिनी झॉक रही है
यह क्या हो रहा है
कहीं सर काटने की धमकी तो कहीं किसी को मारने की
इतना बवाल और बखेडा मेरे नाम पर
वर्षों पुरानी पीडा उभर आई
याद आ गया वह समय जब अलाउद्दीन खिलजी ने प्रस्ताव रखा था
ऑखें अंगारों सी दहक उठी थी
शरीर थर- थर कापने लगा था
राजपूतनी थी मैं , परदों में रहनेवाली
पर पुरूष तो छाया भी नहीं देख सकते
सर काट डाले या ऑखें निकाल ले इस नराधम की
आततायी और अत्याचारी खिलजी
रानी थी बेमिसाल सुंदरी भी थी
आन - बान - शान विरासत मे मिली थी
साथ- साथ प्रजा के प्रति भी कर्तव्य था
विवश होना पडा , राजा की भी सहमति थी
शीशे में अपनी परछाई दिखानी पडी
अपनी खूबसूरती पर लानत हो रहा था
लगा यह शीशा पिघल जाय और यह नराधम उसी में समा जाय पर होनी को कुछ और मंजूर था
उस लोलुप की तो प्यास बढ रही थी.
वह अंधा हो गया था
छल- बल का सहारा लिया
रानी के भी शूरवार गोरा- बादल के नेतृत्व में लडे
आखिर उस दुराचारी की जीत
रानी को जौहर का सहारा लेना पडा
भस्म कर दो इस शरीर को
जौहर की आग में अपने पतियों का नाम ले कूद पडी
खिलजी को राजपूतानियों की यह गाथा पता नहीं थी
मलीक मोहम्मद जायसी और अमीर खुसरों की वह नायिका बनी
पद्मावत की रचना हुई और पद्मिनी की कहानी आगे बढती रही
कहानी इस अंजाम पर पहुंचेगी ,यह नहीं पता था
आज विवाद में है पद्मिनी पर बनी फिल्म
दिखाने पर पांबदी की मांग
उस समय भी यही हुआ था ,शीशे में रूप के प्रर्दशन को मजबुर थी
आज भी वही हो रहा है
टुकडे- टुकडे कर झलक दिखला रहे हैं
मेरी मर्यादा का खयाल तक नहीं
तब भी जौहर हुआ था
आज फिर आग में झुलस रहा है हिंदूस्तान
अफसोस हो रहा है
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