छोडो छाता , उठाने की जहमत से
कितनी बार लौटे उल्टे पैर उसे लेने
कभी घर तो कभी ऑफिस
धूप - हवा - बरखा से खूब बचाया स्वयं को
कपडो को और तन -मन को भी
मन मचलता रहा भीगने को
यह भी याद न रहा कि दूर हुए नीलाभ छतरी से
बस अब बस भी करना
मुक्त- स्वच्छंद हो श्वास लिया जाय
बारीश की बूंदों में भीगा जाय
धूप की तपीश महसूस की जाय
हवा में केश उडाये
मन भर कर देख ले निरभ्र आकाश
धूप - बरखा - कडकडाती बिजली - तूफानी हवा
इनसे क्या घबराना ???
ऊपर आकाश , नीचे जमीन
पंचतत्वों से तो शरीर का निर्माण
छाते को बीच में मत आने दे
पंचतत्व को अंदर - बाहर एकरस होने दे
महाभारत के पांडवों के महाप्रस्थान जैसा क्षण
सब कुछ छोड बिना हाथ पकडे चलते रहो
और पास - पास जाने हेतू
रहने दो छाता घर पर ही
तन - मन को भीगने दो.
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