मैं मैं करता रहा
अंत मे मेरा कुछ नहीं
मकान बच्चों का
बच्चे अपने जीवनसाथी के
उनका अपना संसार
मै भ्रमित
पैसे -रुपये की बचत
तब नहीं किया खर्च
अब तो चलने मे असमर्थ
बैंक भी जाता हूँ
तो किसी को लेकर
न कुछ खा सकता हूँ
न खर्च कर सकता हूँ
बस बच्चों को देना है
और मुझे एक कोने में पडा रहना है
खाना बिन स्वाद मिल जाना है
किसी तरह दिन काटना है
गुजरा.समय याद आता है
जब खुद पर इतराता था
मेरा घर मेरा परिवार करता था
पहले उनकी इच्छाओं के आगे अपनी इच्छा त्यागी
अब वे अपनी इच्छाओं के आगे मुझे त्याग रहे
कोई नहीं यहाँ किसी का
यह बात देर से समझा
मेरा मेरा करते बन गया बेचारा
असमर्थ ,लाचार ,बूढ़ा
तन भी साथ न देता
मन तो करता खिलवाड़
भूल जाता हूँ कुछ याद नहीं रहता
झिडकी खाता हूँ
पर सब सुन नहीं पाता
कान हो गए कमजोर
देखना भी है गया कम
चश्मा बिना कुछ नहीं
पर फिर भी सब.समझता हूँ
बूढ़ापा एक बोझ है
स्वयं पर और दूसरे पर
पराधीनता शाप है
अधिक आयु अभिशाप है
बूढा होना एक सजा है
जिंदगी एक जेल है
हम उसमें कैद है
इस कैदखाने से मुक्ति कब मिलेगी
यह भी एक प्रश्न है
इसका उत्तर भी अनिश्चित है
इसी अनिश्चितता मे फंसे हुए हम जैसे लोग हैं
बस बाट जोह रहे
कब मुक्त हो
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