दीपावली आ रही है
ढेरों खुशियाँ भी साथ ला रही है
साथ मे अपने बचपन की भी याद दिला रही है
तब भी यही दीपावली थी
महीनों से इंतजार रहता था
घर मे पकवान बनेंगे
नये कपडे मिलेंगे
घूमने जाएंगे
रिश्तेदारों के यहाँ जाएंगे
वे हमारे यहाँ आएगे
साफ सफाई पन्द्रह दिन पहले से शुरू होती
घर मे गुझिया -चकली बननी शुरू होती
हम भी हाथ बटाते
पर खाने को न मिलता
वह तो दीपावली को ही
सुबह उबटन मल कर नहाते
नये कपडे पहनते
पड़ोसियों के यहाँ थाली सजाकर ले जाते
लक्ष्मी पूजन के समय उपस्थित रहते
पटाखे और फुलझड़ी जलाते
हर दरवाजे पर कंदील लटकता
रंगोली द्वार पर सजती
तोरण बांधे जाते
ऐसा नहीं कि अब यह सब नहीं होता
पर वह उत्साह नहीं
अब वैसा माहौल नहीं बनता
माल और रिसोर्ट है
अब परिवार और रिश्तेदारों की जरुरत नहीं
सब कुछ बाजार में मिलता है
अब तो हर दिन पकवानों का है
दीवाली का इंतजार क्यों??
लोगों के पास समय नहीं है
सब मशरूफ है
कपडों की भी कमी नहीं
अलमारी भरी पडी है
रखने की जगह नहीं है
अब डाइट का जमाना है
तैलीय चीज नहीं खाना है
मिठाई से भी दूर ही रहना है
वजन जो नहीं बढ़ाना है
रिश्तेदार नहीं अब फेसबुक फ्रेंडस जो है
जब सब उपलब्ध है
तब क्या दीपावली
क्या होली
अब तो हर दिन दीवाली है
फिर वर्ष भर इंतज़ार क्यों
तब वह अनोखी थी
आज नहीं
समय बदल गया
भौतिकता का जमाना है
विज्ञापन युग है
नेट है
घर बैठे सब उपलब्ध है
अब बाजार तो मोबाइल मे समा गया है
सब कुछ आसान बन गया है
पर वह आंनद कही खो गया
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