वह बचपन की नमक - तेल चुपड़ी रोटी
वह शक्कर - घी का रोल बनाई रोटी
वह दूध - चावल की कटोरी
वह आटे की सिगड़ी पर सेकी चिड़िया
न जाने कहाँ गायब हो गए
अब तो जमाना आया
पिज्जा - बरगर का
दादी - नानी के हाथ की बनी सिवैया
अब आ गई उसकी जगह मैगी
वह सर्दी मे बनाया काढ़ा
अदरक ,कालीमिर्च ,तुलसी का
जो नाक बंद कर पीते थे
अब तो सूप का सीप लेते हैं
वह बरफ का गोला
चूस चूस कर खाते
कभी कपडों पर
तो कभी नीचे गिराते
वह रावलगांव की टाँफी
वह पारले जी का बिस्कुट
वह भैया के पास का पांच पैसे वाला समोसा
वह कुरमुरे वाली भेल
वह भजिया और आलू की टिक्की
अब तक स्वाद जबान पर है
सीमित थे व्यंजन
सीमित थी इच्छाएँ
संतुष्ट थे उसमें
आज तो व्यंजनों की भरमार
न जाने कितने प्रकार
नाम भी आलीशान
पर तब भी संतुष्टि नहीं
मन भरता ही नहीं
वह सादी रोटी और चटनी मे जो मजा था
वह एक आम के सदस्यों के हिसाब से फांके मिलती
उसका छिलका भी चाट कर जो मजा था
वह जूस के बोतल मे कैसे मिलेगा
आज इच्छाएँ भी अंनत
साधन भी असीमित
फिर भी अतृप्त है मन
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