वसंती हवा चल रही है
पत्ता -पत्ता डोल रहा है
डाली -डाली झूम रही है
मन भी यादों के भंवर मे गोते लगा रहा है
वह शमां याद आ रहा है
जब हम -तुम घंटों बैठे रहते थे इसी बगीचे में
वह चुपचाप शांत रहता
हम भी एक -दूसरे को निहारते रहते
कभी खड़खड़ाहट होती
तब हम भी सचेत हो जाते
शब्द तो होते नहीं थे
मौन की भाषा होती थी
पर उसमें प्रेम टपकता था
इसलिए बिना कहे समझ आ जाती थी
इजहार की जरुरत नहीं पड़ती थी
न इकरार न इजहार
बस नजरों का नजराना
खिले चेहरे रहते
लाख पहरा होता
कभी बगीचा
कभी समुंदर
यही आशियाना होता
वक्त की तो खबर नहीं रहती थी
आज भी वही हम है
वही वक्त है
बस थोड़ी उम्र बढ़ गई है
प्यार भी और गहरा गया है
सरसराती हवा झोंके देती जाती है
ठंड का एहसास करा जाती है
फिर उन्हीं दिनों की याद दिला जाती है
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