Wednesday, 5 June 2019

धरती सिसक रही है

आसमान ,धरती को प्रेम से निहार रहा था
कितनी सुन्दर लगती है
कितनी रौनक और चहल-पहल है
रात के अंधेरे में में भी जगमगाती रहती हैं
जल से भरपूर
नदी ,तालाब और झरने
पर्वत और पहाड़
लहराता समुंदर
फूलों की खुशबू
पेड़ो की हरियाली
लहलहाती फसले
भांति भांति के जीव
यहाँ से वहाँ विचरण करते
मै तो एक ही रंग में
वही तारे वही बादल
कितनी भाग्यवान है

धरती हँस पडी
बोली दोस्त
दूर के ढोल सुहावने लगते हैं
तुम्हें शायद पता नहीं
हर रोज मेरा सीना छलनी किया जाता है
मेरी अपनी ही संतान
एक ,दूसरे की दुश्मन बनी हुई है
स्वार्थी हो गई है
मै विवश हूँ
कुछ कर नहीं सकती
सिसकियाँ भरती रहती हूँ
पर उसकी आवाज़ किसी को सुनाई नहीं देती
डरती हूँ अपनी संतान के विनाश का कारण मैं ही न बन जाऊं
कितना सहन करूँ
उसकी भी एक सीमा है
मै ऐसा नहीं चाहती
पर मेरी संतान कब सचेतेगी
कहा नहीं जा सकता

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