कितनी औपचारिकता
हँसना संभल कर
रोना अकेले
खाना धीमे धीमे
बोलना सोचसमझ कर
अंदर कुछ बाहर कुछ
सब बनावट के मारे
इसी बनावटीपन के जाल में उलझे हम
हर पल दिखावा
हम भी तो हो गये हैं ढोंगी
जेब भले हो खाली
पर दिखना है अमीर
हो गए हैं बूढे
दिखना है जवान
बालों में काला
नकली दांतों की माला
कपडों के मकडजाल में उलझे
हर वक्त दूसरों का सोचते
कोई क्या कहेगा
इससे कौन सा फर्क पड जाएंगा
अपना खाना
अपना पहनना
किसी से क्या लेना देना
हर हाल में बस खुश रहना
खुशी अंदर है बाहर नहीं
दिखावे से बाहर निकल
असली जगत में जीना है
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