कुदरत दिल खोलकर देती है
देने में कंजूसी नहीं करती
हम ही है जो संभाल नहीं पाते
न उसको जी भर कर निखरने देते हैं
न स्वच्छंद विचरण करने देते है
तमाम तरह की बंदिशो से बांध देते हैं
वह कितना सहे
बंधन तो उसे भी पसंद नहीं
फिर तो उसका आक्रोशित होना स्वाभाविक है
और जब वह आक्रोश में आती है
तब विध्वंसकारी बन जाती है
तब तो उस उफान को रोकना किसी के बस की बात नहीं
सारे बंधनों को तोड डालती है
उसे बांध कर नहीं
उसके साथ रहना है
वह जो देती है
उसका अहसान मान सम्मान करना है
वह प्रसन्न तब तो हम भी प्रसन्न
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