वह हीरा थी
मैने उसे साधारण पत्थर समझा
उसको तराश रही थी
जिसकी जरूरत नहीं थी
वह तो स्वयं ही चमकदार थी
आभासंपन्न थी
पर मैं भांप नहीं पाई
जबरन सब थोपती रही
अपने विचार लादती रही
उसको तुच्छ लेखती रही
वह सब करती रही
प्यार के नाम पर जबरदस्ती करती रही
वह सब सहती गई
यह नहीं कि डरती थी
बल्कि मुझसे बहुत प्रेम करती थी
इसलिए मेरी गलतियों को नजरअंदाज करती रही
जब सब्र का बांध टूट गया
वह छोड़ कर चली गयी
मैं उसकी याद में बिसुरती रही
हीरे को पत्थर समझा
उस भूल की सजा भुगतती रही
उसकी अहमियत न समझी
ऐसी नादानी कैसे हुई
अब स्वयं पत्थर की मूरत बन बैठी हूँ
सब कुछ वह ले गई
मेरे अंतर्मन को रीता कर गई
मुझे छोड़ कर चली गई
मैं विवश हो देखती रह गई
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