कभी सोचती हूँ
मैं लिखती क्यों हूँ
हर सुबह लगता है
कुछ लिखूं
बिना लिखे दिन अधूरा
बहुत कुछ कहना चाहती हूँ
पर वह शब्दों में समेट नहीं पाती
मन विचलित होता है
बहुत कुछ ख्याल आते हैं
पर वह नहीं लिखा जाता
मन सोचता कुछ है
लिखता कुछ है
विचार उमड़ते घुमडते रहते हैं
शब्दों में वह नहीं समा पाते
पीडा जब बहुत गहरी होती है
तब तो शब्द भी मूक हो जाते हैं
शब्दों का एक अपना संसार
एक हमारा भी संसार
हमारी एक रची रचाई दुनिया
कुछ भी कहो
कुछ तो सुकून मिलता है
अपनी नहीं दूसरों की ही सही
भावनाओं को समझने का
कागज पर उकेरने का
शब्दों में ढालने का
यही बहुत है
कुछ कह न सके
कुछ कर न सके
पर अपनी बात किसी एक के दिल तक भी पहुंचा सके
इतनी तो ताकत है
वह शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त होगा
इसलिए कुछ लिखना है
दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ
आग मेरे सीने में नहीं
तेरे सीने में जलनी चाहिए
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