Tuesday, 22 December 2020

मैं चांद छूने चली थी

मैं चांद छूने चली थी
उसे अपने पास लाने चली थी
वह मेरी पहुँच से बाहर
जब जब देखती
मन करता उसको अपने पास ले आऊ
पहुंचने के पहले ही नजरों से ओझल हो जाता
बादलों मे छूप जाता
मैं ढूढती रह जाती
मुझे तो पूरा चांद चाहिए
वह तो कभी आधा - अधूरा
कभी उससे भी कम
कभी पूरा ढका हुआ
मुझे अमावस का चाँद नहीं
पूर्णिमा का चाँद प्यारा लगता है
उसकी चमक दमक भाती है
तारों के बीच अपनी संपूर्णता के साथ
दागदार नहीं
छोटा , टेढा - मेढा , अंधेरे में ढका हुआ नहीं
ऐसी चमक वह मुझे रास नहीं आती
हो तो संपूर्ण अन्यथा न सही
मैं चांद छूने चली थी
उसे अपने पास लाने चली थी

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