मार खाना
कम से कम दिन में एक बार तो अवश्य ही
मार खाओ और मन पर मत लगाओ
यह हमारे जीवन का फंडा होता था
कोई भरे मैदान में पिता द्वारा जूते से पीटा जाना
कोई मोहल्ले वालों के सामने
कोई रिश्तेदार के सामने
सम्मान और इज्जत
यह बच्चों के शब्दकोश में नहीं
परिवार में आपसी झगड़ा
पति-पत्नी के बीच झगड़ा
तब दे दना-दन
सब बच्चों के ऊपर ही उतरता था
थोड़ी देर में सब भूल जाता था
पाठशाला की तो बात ही निराली
हर दूसरे दिन मुर्गा
बेंच पर खडा होना
कक्षा के बाहर
थप्पड़ और डस्टर का वार
नालायक और बदतमीज़ से नवाजना
आज तो बात ही कुछ और है
बच्चों से डर लगता है
युवाओं से डर लगता है
यहाँ तक कि बुजुर्गों से भी डर लगता है
कौन सी बात लग जाएं
कौन सा कदम उठा ले
हमारी नींव ही मजबूत थी
मार खाना
डाट खाना
यह जिंदगी का अहम हिस्सा थे
क्योंकि पता था शायद लोगों को
जिंदगी में न जाने क्या क्या करना पड़ेगा
किस तरह की ठोकरे लगेंगी
बचपन से ही ट्रेन्ड
तभी तो आत्महत्या के केस कम थे
अभिभावकों को डर नहीं था
आज तो डर का माहौल बना है
प्यार में भी डर
ममता भी डरी हुई
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