मैं दान वीर कर्ण हूँ
सारी जिंदगी दान दिया
हर जाने - अंजाने को
तुमको नहीं दे सका मैं
तुम्हारे पांचों पुत्रो का जीवन दान
अर्जुन या मैं
कोई एक बचेगा फिर भी
मैं नहीं माफ कर पाया तुमको
तुम थकी - हारी , व्यथित मेरे दर पर आई थी
मेरी अपनी माँ जननी मेरी
तुमको आधा - अधूरा ही लौटा दिया
जिसने इंद्र को कवच - कुंडल दे दिया
वह तुम्हें एक अर्जुन नहीं दे सका
जिसने मुझे जन्मते ही नदी में बहा दिया था
तुम पांच पुत्रों के साथ हस्तिनापुर की महारानी बनी रही
मैं सूतपुत्र अधिरथ और राधा का बना रहा
हर जगह मुझे धिक्कारा गया
मैं महारानी कुंती और सूर्य का पुत्र
यह कभी उजागर हो ही नहीं पाया
अर्जुन से मेरा युद्ध होना था अवश्यभांवी
वहाँ मेरे असतित्व का प्रश्न था
मैं वीर धनुर्धर हूँ
यह बताना था सभी को
मुझे तो गुरु परशुराम का शाप था यह विदित था
फिर भी तुमको लौटाया
तुमको मैं कभी क्षमा नहीं कर पाया
मैं स्वयं से हारा था
इतना विशाल हदय नहीं था मेरा
मैंने भरी सभा में पांचाली का अपमान किया था
हर कदम पर दुर्योधन के कुचक्रों में साथ रहा
केवल एक उपकार
कि उसने मुझे मेरी पहचान दी थी
अंगराज का मुकुट सर पर रखा था
जबकि मेरी पहचान तो मेरी वीरता थी
वह किसी की मोहताज नहीं थी
मृत्यु तो निश्चित है
अगर अर्जुन को जीवन दान दे भी देता
तब भी क्या ??
तब तो दोनों तरफ से हारता
हार तो मेरी ही थी माता
जहाँ माॅ ने उपेक्षा दी थी
जीवन भर दंश मैंने सहा
उस पीड़ा को अपने बाणों से अर्जुन की छाती में उतारना चाहता था
अगर वासुदेव कृष्ण नहीं होते अर्जुन के सारथी
तब तो परिणाम कुछ और होता
मैं कहीं न कहीं पांडव कहलाना चाहता था
इसलिए युद्धभूमि पर मृतवत पडे हुए भी याचक को खाली हाथ न लौटाने वाले
अपने सोने के दांत को तोड़कर देनेवाला
कर्ण ने अपनी जननी को लौटा दिया
कर्ण वहाँ हारा था
कर्ण वहाँ टूटा था
वह प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा था
हर हाल में हार गया था
सबके लिए दानवीर कर्ण उस दिन ही हारा था जब तुम सर झुकाएं , ऑखों में ऑसू लिए
मेरे सामने याचक बन खडी थी
पांडव मेरे भाई है यह बता कर तुमने मुझे स्वयं हरा दिया था
मेरा जन्म और मृत्यु दोनों अभिशाप बन गए
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