मैं तो ओस की बूंद हूँ
आसमां को छूती हूँ
पर पैर मेरा जमीन पर ही
मुझे पता है मैं क्या हूँ
तभी तो अपनी औकात में रहती हूँ
आसमां की बुलंदियों को छूती जरूर हूँ
पर मिट्टी की कीमत भी जानती हूँ
कभी सीप में मोती बनती हूँ
कभी पत्तों पर कभी फूलों पर
कभी कमल दल
कभी सूर्य की सुनहरी किरणों मे झिलमिलाती हूँ
फिर भी मैं गर्व नहीं करती
अंत में मिलना तो है इसी मिट्टी में
तभी तो अपनी औकात में रहती हूँ
मैं तो ओस की बूंद हूँ
आसमां को छूती हूँ
पर पैर मेरा जमीन पर ही
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