चली हवा चली
इतराती, बल खाती
इधर उधर स्वच्छंद डोलती
कभी यहाँ कभी वहाँ
कभी छत पर कभी बगीचे में
कभी किसी पेड पर
कभी खिडकी से घर के अंदर
न रहती एक जगह
जब जब डोलती
सुकून देती
आह्लादित कर जाती
कुछ पल में छोड़ फुर्र हो जाती
पकडना चाहते पर हाथ नहीं आती
मनमौजी है
जब उसका मन होता
तब ही आती
हमारे बुलाने पर तो कभी न आती
भले कितनी भी गर्मी हो
हम तपते रहते
पर इसे दया न आती
जिद्दी है
जब जिद पर आ जाती
ऑधी- तूफान ले आती
जब शांत बैठती
तब सबको पसीने से तर बतर कर जाती
मन करता
इसको पकड़ के रख ले
पर इस पर किसका बस
आएगी तभी
जब मेहरबान होगी
सांसों से जुड़ी है यह
जब तक यह आनी - जानी है
तब तक ही तो जिंदगानी है
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