कहने को तो जीता है आदमी
अब जीना किसे कहते हैं
यह शायद वह नहीं जानता
हर रोज चोट खाता है
फिर भी उफ तक नहीं करता
न जाने क्या - क्या दफन करता है
तब वह जीता है
आशा - आंकाक्षाओ की बलिवेदी रोज चढाता है
घुटता है
सिसकता है
कराहता है
पर दिखाता नहीं है
सब सीने में छुपाए रखता है
ऊपर से हंसी बिखेरता है
ठहाके लगाता है
सबको बताता है
मैं जिंदा हूँ
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