विधवा यह शब्द चुभता है
असहायता का प्रतीक लगता है
विधवा शब्द सुनते ही
एक मुर्ति जेहन में उभरती है
रंगहीन जीवन का
सफेद साडी में लिपटी
न हाथ में चूडियां
न माथे पर बिंदी
न गले में मंगल सूत्र
न मांग में सिंदूर
न शरीर पर गहना
रंगों से टूटा नाता
रंगहीन जीवन
यही था विधवा का रूप
पति ही परमेश्वर
वह नहीं तो सब सून
इसलिए सती हो जाओ
आग में जल जाओ
मरना आसान था जीना मुश्किल
आज समय बदला
अब वह हालात वह विचार न रहें
अब उसको भी जीवन जीने का हक
पहनने - ओढने
खाने - पीने
घूमने- फिरने की आजादी
वह अब सक्षम है
उसका जीवन पति के साथ खत्म नहीं हुआ है
वह विधवा है इसलिए दया का पात्र है
यह न समझा जाएं
जमाना बदला है
तब नजरिया भी बदला जाएं
विधवा शब्द को ही भूला दिया जाएं
विधवा है
परित्यक्ता है
इन शब्दों की जरूरत ही क्या है
बस व्यक्ति ही रहने दिया जाएं
लाचारी और विवशता तथा सहानुभूति
इसकी कोई आवश्यकता नहीं
वह पैरों पर खड़ी हो
आत्मनिर्भर हो
केवल ब्याह - शादी के मापदंड पर न मापा जाएं।
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