घास और फूल में एक दिन बहस हुई
फूल इतरा रहा था अपने पर
अपने सौंदर्य और रंग का गुमान था
वह घास को तुच्छ समझता
उस पर हंसता
उसका मजाक उडाता
घास चुपचाप रहता
मन ही मन मुस्कराता
कहता हंस ले
दो दिन में मुरझा कर गिर जाएंगा
या फिर कोई तोड़ ले जाएंगा
एक - दो दिन के बाद कचरे के ढेर में
वही सिसकता मर जाएंगा
मेरे कारण ही तू है
न जकड रखू मिट्टी से
तब तू न जाने कब ढह जाएं
लोग भले न मुझे देखें
क्या फर्क पडता है
पशुओं का पेट भरता हूँ
बिना मेहनत के उग जाता हूँ
छोटी छोटी जरूरत है मेरी
कहीं भी मेरी परवरिश हो जाती है
किसी पर निर्भर नहीं
छोटा ही सही जो हूँ उसी में खुश
उसी हरियाली में लहलहाता हूँ
हमेशा खुश रहता हूँ
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