दशहरा यानि विजयादशमी
सबके मनाने का अपना अलग-अलग ढंग
हाँ एक बात काॅमन
खुशी का त्योहार
भक्ति का त्योहार
श्रद्धा का त्योहार
असत्य पर सत्य की विजय
अधर्म पर धर्म की विजय
उत्सव तो बनता ही है
मेला लगता था
बडो से पैसे मिलते थे
रावण दहन देखते थे
कहीं जलेबी - फाफडा
कहीं पुरी - हलवा
कहीं और कुछ पकवान
जम कर आनंद लिया जाता था
दरवाजे पर आम के पत्ते, गेंदें के फूल , धान की बाली का तोरण
आज सब याद आ रहा है
गरबा तो खेलते नहीं थे क्योंकि घर में स्वीकार नहीं था
पर बारह - एक बजे तक खिड़की और गैलरी में बैठ कर देखते रहते थे
थकान भी नहीं
सुबह-सुबह उठ भी जाते थे
आज भी दशहरा मनाया जाता है
आज उसमें ज्यादा चमक दमक दिखती है
पर यह कह सकते हैं
हमारे जमाने की बात ही कुछ और थी ।
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