Tuesday, 30 November 2021

बीस का सौ पचास का ढेड सौ

बीस का सौ पचास का ढेड सौ
बालकनी का दो सौ
अभी शुरू होने वाला है
बस दो ही टिकट बची है
यह वह जमाना था
जब ब्लैक में टिकट मिलते थे
अगर पहले बुकिंग नही कराई
चार दिन दो दिन एक हफ्ता
अचानक फिल्म देखने का मन हुआ
टिकट खिड़की के बाहर लाईन में लगना
और ये ब्लैक वाले आसपास मंडराते रहते थे
कभी-कभी तो दो - चार लोग पीछे हो लेते थे
वैसे यह कानूनन सही नहीं था
तब भी होता ही था

आज हम घर बैठे टिकट बुक करा लेते हैं
टिकट खिड़की पर भी कोई भीड़ नहीं
कौन सी पिक्चर कब आई कब गई
यह भी पता नहीं चलता
थियेटर खाली पडे रहते हैं
उन दिनों एक ही थियेटर में महीनों एक ही पिक्चर चला करती थी
सुना है मुगलेआजम जब लगी थी तो लोगों ने टिकट खिड़कियों के शीशे तोड दिए थे
शोले तो हमारे समय में ही मिनर्वा  में लगी थी
खचाखच भरा रहता था
अंदर और बाहर
देखने वालों की भी टिकट लेने वालों की भी
अब वह बात नहीं रही
तब फिल्म देखना एक उत्सव से कम नहीं था
पूरा परिवार जाता था
नवविवाहिता जोड़े और प्रेमी - प्रेमिका
काॅलेज बंक कर छात्र और छात्राएँ
सब छुपते छुपाते
घर वालों को पता न चले
तब यही ब्लैक वाले काम आते थे
बीस का पचास देने के बाद भी खुशी मिलती थी जैसे कोई फतह हासिल कर लो
आज भी जाते हैं कभी कभार
तब वह
बीस का पचास
पचीस का सौ
बालकनी का दो सौ
यह आवाज गूंजती है

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