कलियाँ चाही थी
फूल चाहे थे
जितने वे न मिले उससे ज्यादा मिले शूल
आज तक वे चुभते ही रहे हैं
कोशिश बहुत हुई
निकाल दू पर निकलते ही नहीं है
कुछ निकल भी गए है
उनका घाव अभी भी पूरा भरा नहीं है
समय समय पर ताजा हो उठते हैं
टीस देते ही रहते हैं
ऐसा नहीं कि बगिया खिली नहीं
कलियाँ खिली नहीं
साथ साथ ये भी तो रहे
जब इनका मन आया
जब ये चाही तभी खिली
तब तक समय बीत चुका था
सुबह से संझा हो गई थी
खुशबू कम हो गई
खुशी अधूरी रह गई
ऐसा क्यों होता है अक्सर
जो हम चाहते हैं
जब चाहते हैं
तब वह नहीं मिलता
इंतजार करते जीवन बीत जाता है
सभी के नसीब में ऐसा हो जरूरी नहीं
कुछ के नसीब में तो इंतजार, इंतजार ही रह जाता है
न कली मिली न फूल
तब भी जीवन जीने को मजबूर
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