आज कपड़ों की भरमार
अलमारी भरी पडी है
समझ नहीं आता
कब क्या और कौन सा पहना जाए
बेटी ने कहा
चलो आपके लिए दीवाली के कपडे लेते हैं
क्या करना है
जो है भी वह भी पहना नहीं जाता
रिटायर भी हो गए हैं
कितना बदलाव ??
एक समय था जब दीवाली में ही कपडे खरीदें जाते थे
दो जोड़ी पर उसका इंतजार रहता था
न बर्थ डे न और कुछ
पैसे भी रिश्तेदारो से त्योहार पर मिलते
कितनी उत्सुकता
कितनी प्रसन्नता
आज भी वह जेहन में झालर वाली फ्राक याद है
रंग भी याद है
काॅलेज का वह पहला बेलबाॅटम और टाॅप
और वह पहली साडी
और भी बहुत कुछ
आज अलमारी में ही कौन सी साडी
पता नहीं
न जाने कितने सूट
उस दीवाली और अब की दीवाली में यही फर्क
तब अभाव में भी भावों से भरा मन था
आज भरा हुआ सब कुछ
तब मन खाली खाली
तब जगह की कमी थी
दिल में अपार जगह थी
जो सबको समा लेता था
आज घर बडा और दिल छोटा
किसी की जरूरत नहीं
बस अपने आप से मतलब
तब फोटों सेशन की जरूरत नहीं थी
अपने लोग दिल में समाए थे
आज भी बिना फोटो के उनकी छवि अंकित है
जो पुरानी होने पर भी धूमिल नहीं
वैसे ही तरोताजा
समाज और उसकी सामाजिकता
हौले हौले खिसक रही है
जो कुछ बचा वह भी दिखावा
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