साहित्य ,समाज का दर्पण होता है जो समाज में घटित होता है वही साहित्य दिखाता है
किसी भी समाज और युग को जानना हो तो उस समय का साहित्य उठाकर देख लीजिए.
खान- पान से लेकर रहन - सहन और विचार की जानकारी मिल जाएगी
फिल्म भी साहित्य का हिस्सा है वह वही कहानी या घटना दिखाता है जो हुई है या हो रही है
स्वतंत्रता के समय की फिल्म अगर देशभक्ति दिखाती थी और सती प्रथा और विधवा तथा बालविवाह की कुप्रथाओ पर प्रहार करती थी तो आज की फिल्में भ्रष्टाचार ,राजनीतिक ,नशा इत्यादि पर प्रहार कर रही है,, अगर सिगरेट और नशे की खामियों को दिखाना है तो उसका प्रयोग तो करना ही पडेगा
बिहार की राजनीतिक पृष्टभूमी को लेकर गंगाजल जैसी फिल्में बन चुकी है
" बाम्बे " जैसी फिल्म भी बन चुकी है जिसमें हिन्दू- मुस्लिम विवाह और दंगों को दिखाया गया है
रही बात तो नाम में क्या रखा है
अगर ऐसी बात होती तो" बाम्बे टू गोवा" फिल्म कभी न बनती
फिल्म की कहानी के अनुसार भाषा और शब्द का चयन होता है
इतनी तो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता होनी चाहिए
अगर सेंसर बोर्ड ज्यादा कॉट- छाट करेगा तो फिल्म निर्माता का जो उद्देश्य है वह तो पूरा नहीं हो पाएगा
अगर ड्रग और नशे से संबंधित फिल्म है तो इससे तो समाज में जागृति ही फैलेगी
कुछ फिल्में इसी कारण पूरी न हो पाई और किस्सा कुर्सी का बन कर रह गई
नशे की समस्या से तो सब त्रस्त है
युवाओं में बढती यह समस्या जड से खत्म होनी चाहिए
पंजाब ही क्यों उत्तरप्रदेश ,बिहार ,यहॉ तक कि महानगर मुंबई की झोपडपट्टियॉ
नशा ,अपराध को जन्म देता है और समाज को खोखला बना रहा है
अगर फिल्म भी इसे दूर करने का एक साधन हो तो हर्ज ही क्या है
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