Sunday, 6 November 2016

ठोकर लगने पर ही सीखता है

यह मनुष्य का स्वभाव है जब तक वह स्वयं अनुभव नहीं कर लेता तब तक दूसरे का समझाना और टोकना उसे अच्छा नहीं लगता
बात उन दिनों की है जब मैं विरार ट्रेन से आना- जाना करती थी
मुंबई की लाईफ लाईन कही जाने वाली लोकल पकडने के लिए लोग पहले से ही सज्ज रहते हैं
जैसे कोई जंग जीतनी हो
ट्रेन आने के पहले ही तैयार और कूद कर अंदर चले जाना और अगर सीट मिल गई भाग्यवश तो फिर क्या कहने
वैसे सीट मिलने और बैठने का कोई सवाल ही नहीं
शॉति से खडै हो जाय ,वही बहुत है
उसमें भी सबके ग्रुप होते हैं
जन्मदिन से लेकर सारे त्योहार भी मनाए जाते हैं
फेरी वाले से लेकर मोटर मैन तक सब परिचित होते हैं
हमारी भी एक ग्रुप था
उसमें एक सहेली जो ऑफिस में काम करती थी अपनी बच्ची को भी साथ लाती थी
पाठशाला में छोडती थी और जाते समय साथ ले जाती थी.
कामकाजी और एकल पालक की यह आम समस्या है
बच्ची कुछ दस- ग्यारह साल की होगी
आते ही कूद कर सीट पर कब्जा कर मॉ के लिए भी जगह बना लेती
पर वह शुरू का स्टेशन था तो कोई बात नहीं थी
पर कभी- कभी कोई वाकया हो जाता था
लोग साथ- साथ एक- दूसरे पर गिर पडते थे
यह आम बात है
कहा जाता है कि भीड आपको धक्के से चढा देगी और उतार भी देगी
अंजान बाहरवाले के बस की यह बात नहीं
वह पूरा दिन बैठे रहे और प्रतीक्षा करे
पर कोई गाडी खाली नहीं मिलेगी
सुबह चार बजे से रात के एक बजे तक
आते समय भी बच्ची प्लेटफॉर्म आने पर वही करती थी
मॉ मना करती पर मानती नहीं थी
बच्चे का मन जबकि कूदने की आवश्कता नहीं थी
ट्रेन वहॉ कुछ समय खडी रहती थी
पर लोग अक्सर जल्दी में ऐसा करते हैं
और चोटिल हो जाते हैं
एक दिन का वाकया कि बच्ची हमेशा की तरह कूदी
और प्लेटफार्म पर बस्ते सहित औधे मुँह गिरी
मॉ को अभी उतरना था पर मॉ मुस्करा रही थी
मुझे आश्चर्य हुआ
पर मॉ ने कहा
मैं रोज मना करती थी पर नहीं मानती थी
पर अब चोट लगी है न तो समझ में आया होगा
एक तरह से अच्छा हुआ
और सच में दूसरे दिन से वह बच्ची गाडी रूकने पर ही उतरती थी
तो जब तक स्वयं अनुभव नहीं होता तब तक बात समझ में नहीं आती

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