मैंने बचपन में छिपकर पैसे बोए थे
सोचा था पैसे का प्यारा पेड लगेगा
कवि पंत की वह कल्पना ,कल्पना ही रह गई
आज वह कविता याद आ रही है
लोग न जाने कितने वर्षों से काट- कसोर कर पैसे जमा कर रखे होगे
बच्चों की शादी ,वृद्धावस्था का इंतजाम
गृहणियॉ छुपाकर ,पति से
मुसीबत के समय काम आने के लिए
चूल्हेम के नीचे से लेकर दिवार तक
दाल- शक्कर के बक्से से लेकर तकिए के कवर और गद्दे के नीचे
पर ऐसा फरमान निकाला है सरकार ने
सबकी सॉस टंगी की टंगी रह गई
कहॉ से हिसाब दे
कितने सालों का दे
बैंक तो देखा ही नहीं कभी
हमेशा घूंघट- परदे में रही
घर से बाहर निकलने और जमा करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता
पति और ससुराल का भी और सरकार का भी डर
अब तो दोनों को हिसाब देना है
सरकार को भी और ससुराल को भी
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