जब छोटी क्लास में थी तो पाठ्य पुस्तक में एक पाठ था अल्बर्ट आइंस्टाइन का
एक समय का वाकया था कि उनको कुछ लोग मिलने आने वाले थे
उनकी उपलब्धियों पर उनका सम्मान होना था
दूनियॉ के बडे और महान लोग उनमें शुमार थे
उनकी पत्नी को उनकी आदत पता थी सीधा- सादा रहन- सहन
कपडो के प्रति कोई चाव नहीं
इसलिए उन्होंने उनके पुराने और प्यारे पैंट और शर्ट को छुपाकर रख दिया
तैयार होकर नीचे जाने का समय आया तो उनका कपडा गायब है
उनकी पत्नी उन्हें तैयार होकर नीचे आने के लिए कह मेहमानों का आवभगत करने चली गई
कुछ समय के बाद देखती क्या है कि
वे उन्हीं पुराने कपडे में नीचे उतर रहे हैं
उन्होंने अपना कपडा ढूड निकाला था
मेहमानों के जाने के बाद पत्नी के गुस्सा होने पर उनका जवाब था
जो लोग आए थे वे मुझसे मिलने आए थे न कि मेरे कपडो को देखने
पर आज समय बदल चुका है तथा हर कोई तो आईंस्टाइन नहीं हो सकता
कपडे और व्यकितत्व का प्रभाव तो पडता है
कारपोरेट जगत में काम करना है
विज्ञापन का युग है
दिखना और दिखाना तो पडेगा ही
गांधी भी नहीं बन सकते , एक धोती में काम चलाना
कपडा तो व्यक्तित्व संवारने में एक अहम भूमिका निभाता है
और उससे इन्कार नहीं किया जा सकता
कभी दो- तीन कपडो में अपनीजिंदगी गुजारा करने वाला भी आज अच्छा कपडा पहनना चाह रहा है
कपडे को तवज्जों दे रहा है
आज चाहे मध्यम वर्गीय हो या गरीब
नेता हो या अभिनेता
छात्र हो या शिक्षक
मालकिन हो या काम वाली बाई
कोई भी वर्ग इससे अछूता नहीं रह गया है
कपडा केवल तन ढाकने के लिए ही नहीं
बल्कि व्यक्तित्व निखारने के लिए भी सहायक है
उसकी महत्ता को झुठलाया नहीं जा सकता
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