बचपन में दादी से एक कहानी सुनी थी , बारात में किसी बूढे को मत लाना
वर पक्ष चिंता में पड गए
सारे रीति- रीवाज और महत्तपूर्ण काम उनसे पूछकर करना
आखिर उन्होंने एक लकडी का बडा बक्सा बनवाया
उसमें दो- तीन जगह छिद्र किए ताकि सॉस लिया जा सके
बूढे दादा को बिठाया और बारातियों के सामान के बहाने वह बक्सा भी गया
वधु पक्ष के कठिन से कठिन प्रश्न का प्रत्युत्तर दिया गया
उनको शंका हुई कि कोई न कोई बुजुर्ग इनके साथ अवश्य है
उनको आदर - सम्मान से निकाला गया
तात्पर्य कि अनुभव से बडा गुरू कोई नहीं
आज समय बदल गया है
बुजुर्ग हाशिए पर आ गये हैं
अब उनसे कोई सलाह नहीं लेता
उनके पास बैठने से कतराते हैं
अब वह घर का मुखिया नहीं बल्कि भार बन गया है
मुखिया तो छोडिए , उसे व्यक्ति भी नहीं समझा जाता
यह भूल जाते हैं कि यह वहीं मजबूत पेड है जिसके हम फूल - फल हैं
यह उनकी मेहनत का फल है
आज भी हमारी जमीन को कसकर पकड रखा है
कोई ऑधी - तूफान से बचाने के लिए
बचपन को तो हम खो ही रहे हैं
बूढेपन के आशिर्वाद भरे हाथ को भी रोक रहे हैं
उनकी बात हमें बकवास लगती है
पोपले भरे और झु्र्रीदार चेहरे हमें नहीं सुहाते
बच्चों को भी उनके प्रेम से दूर कर रहे हैं
यह भूल जाते हैं कि यह वक्त सब पर आनेवाला है
सम्मान न दे पर कम से कम तिरस्कार तो न करें
वे कहॉ जाएगे अपने बसाए संसार को छोडकर
क्रेश मॉ- बाप का प्यार बच्चे को नहीं दे सकता
उसी तरह वृद्धाश्रम भी अपनापन नहीं ला सकता
उनको घर में ही रखिए
अपनों के बीच
इतनी जिम्मेदारी तो बनती है जन्मदाता के प्रति
मत भूलिए आप उनसे है वे आपसे नहीं
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