पहले मैं सकुचाई सी रहती थी
आज मुखर हो बोल रही हूं
यह सहन नहीं हो रहा है कुछ को
हर बात मे शर्म
यहाँ तक कि मासिकधर्म या रजस्वला पर भी शर्म
जो औरत को पूर्ण बनाता है
उसके बिना तो संसार की कल्पना भी नहीं
मुझे अछूत समझा
ईश्वर की पूजा -अर्चना पर भी पांबदी
पहले बलात्कार होते थे
मैं चुप रहती थी
पर आज पुलिस के पास पहुंच रही हूं
गुनाह गारो को सजा दिलाने
जो गुनाह मैंने किया ही नहीं
उसकी सजा मैं क्यों भुगतू
शादी-ब्याह को सात जन्मों का बंधन मानकर
जिंदगी को नर्क बनाने वाली दासी नहीं
सहयोगी बन रहना है
पति परमेश्वर नहीं है
पति के नाम पर चिता मे भस्म होने वाली नहीं
या विधवा बन रोनेवाली
मुझे भी रंगों से.प्रेम है
जीवन जीने की इच्छा है
मुझे माँ बनने के लिए किसी की ओर ताकना नहीं
मैं बच्चों को गोद भी ले सकती हूं
अकेले पालक धर्म निभा सकती हूं
अपना निर्णय ले सकती हूं
परिवार पर निर्भर नहीं
परिवार को चला सकती हूं
विवाह करना मेरी मजबूरी नहीं
मैं ऐसे ही सक्षम हूँ
मैं कुंती नहीं जो कर्ण को पानी मे बहा दू
मै चूँल्हा चौका ही नहीं
देश चला सकती हूं
मैं वह हर काम कर सकती हूं
जो मर्द कर सकते हैं
तब विरोध क्यों न करू
बोलू क्यों नहीं ???
चुपचाप सब सहू क्यों
अभी तो मैंने संसार को अपनी नजरों से देखना है
बोलना है
बहुत कुछ करना है
रूकना नहीं है
बेड़ियों मे जकड़ना नहीं है
रास्ता ढूंढ लिया है
बस उस पर चलते जाना है
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