समुंदर किनारे बैठी
यह सोच रही थी
कितनी सुहानी शाम है
टहलकदमी हो रही है
कुछ फोटोग्राफी का आनंद ले रहे हैं
इस समय संमुदर शांत है
लहरे आ रही और जा रही
लोग घुटने तक खडे हो लुत्फ उठा रहे
पानी मे बच्चों संग छपकिया लगा रहे
पर वाकई समुंदर का यह असली स्वरूप है
न जाने कितनी गहराई है
थाह लगाना मुश्किल
अंदर न जाने क्या क्या समेटे
धीर गंभीर है
हाँ , जब लहरों मे उफान आती है
वह जोर जोर से उछलता है
पर सीमा मे ही रहता है
युगों युगों से अनंत
ऊपर से शांत
पर अंदर उथलपुथल
जीवन भी समुंदर ही है
हम न जाने क्या और कैसे हैं
क्या बीता क्या हुआ
समुद्र मंथन हुआ था
तब उसमें से अमृत भी निकला
विष भी निकला
विष तो भोलेनाथ ने धारण किया
नीलकंठ कहलाए
पर हमें अमृत ही नहीं विष भी ग्रहण करना है
नीलकंठ स्वयं बनना है
सब अच्छा ही हो
यह तो एक जन्म मे संभव नहीं
विष को गटके़ंगे
तभी अमृत प्राप्त होगा
समुद्र मंथन तो एक बार हुआ था
जीवन मंथन तो हर रोज होता है
हर वक्त जूझना पड़ता है
सर्तक रहना पड़ता है
कब कौन से राहू-केतू ग्रस लेंगे
कहा नहीं जा सकता
यहाँ स्वयं की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है
उठ खडा होना पडता है
किसी सूरज और चंद्रमा का ईशारा नहीं होता
जीवन भी अथाह है
अनंत संभावनाओं को समेटे हुए
बस पहचानना है
गहराई मे जाना है
तह तक पहुंचना है
पर यह और कोई नहीं हमे करना है
उफान आएंगे
उसमें स्वयं डूबना -उतराना.है
और लोग तो जीवन रुपी समुद्र के दर्शक हैं
हम किनारे पर नहीं
हम तो स्वयं जीवनसमुद्र है
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