Sunday, 9 December 2018

यह कैसा घर

हम रहते हैं इस घर मे
कोई बोलचाल नहीं
सब स्वयं मे खोए
साथ होकर भी साथ नहीं
जिसकी जो मर्जी वह करें
देर तक सोए
रात देर तक जागे
जब मन करे खाना खाए
या बाहर से खाकर आए
कोई रोक टोक नहीं
उनकी स्वतंत्रता मे खलल न पड़े
अपने हिसाब से जीना है
फिर वह तो घर नहीं
जहाँ एक दूसरे की भावनाओं की कदर न हो
साथ बैठकर खाना न खा सके
गपशप न कर सके
प्यार बांट न सकें
टेलीविजन न देख सके
इससे तो रेल के मुसाफिर ही ठीक है
जो जितने समय साथ रहते हैं
करीब रहते हैं
बातचीत करते हैं
बस या बाजार मे मिले
तो देख मुस्करा देते हैं
यहाँ तो मुस्कराहट ही गायब
एक दूसरे से बचना चाहते हैं
कहीं कोई टोक न दे
घर अब घर नहीं सराय रह गया है
तभी तो त्योहार मनाने रिसार्ट मे जाते हैं
छुट्टी के दिन माँल मे जाते हैं
दोस्तों के साथ मौज मजे
पर घर के सदस्यों से दूरी
तब प्रेम कैसे पनपेगा
सुख दुख कैसे बांटा जाएगा
दिलों मे तो दूरी ही रहेंगी
जहाँ अपनी डफली अपना राग अलापा जाता है
कोई रौनक नहीं
कोई उत्साह नहीं
न उमंग न उत्सव
सब तटस्थ
वह तो घर नहीं
केवल दीवारों का घेरा है

No comments:

Post a Comment