काश , माँ तुम थोडा अपने लिए भी जी लेती
जबसे होश संभाला
तुमको सबको संभालते देखा
कभी परिवार
कभी सगे-संबंधी
कभी पति
कभी बच्चे
स्वयं पर तो कभी ध्यान ही न दिया
अपनी इच्छा - आंकाक्षा को परे रख दिया
तुम भी हाड - मांस की बनी हो
तुम्हारा भी मन है
यह तो कोई समझ ही न पाया
तुम्हारी जिंदगी पर दूसरों का हक
इसे प्यार का नाम दे दिया गया
वह प्यार या मजबूरी
इसका आकलन कौन करता
कर्तव्यों की बलिवेदी पर स्वयं को स्वाहा कर देना
यह अपेक्षा तो माँ से ही होती है
बच्चे कभी बडे नहीं होते
माँ से ही बडप्पन की अपेक्षा
बच्चे गलत हो सकते हैं
माँ नहीं हो सकती
विधाता ने उसे इसलिए ही तो बनाया है
माँ वह शख्स है
जिसका त्रृणि तो स्वयं विधाता भी है
इसलिए तो विधाता का विधान
उसके लिए अलग है
शक्तिशाली है
एक बार नहीं एक ही जीवन में फिर नया जन्म
संतान को जन्म देकर
प्रसव पीडा और नव महीने कोख में रख
अपने रक्त से सींचती है
सृष्टि का संचालन करती है
वह तो सृजनकर्ता है
उसके बिना तो सृष्टि ही नहीं
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