क्यों मन मानता नहीं
लाख समझाओ समझता नहीं
छोटी सी बात का भी बुरा मान जाता है
क्षुद्र कारण से नाराज हो जाता है
अचानक आगबबूला हो जाता है
क्रोध में आपा खो देता है
जरा सी मुसीबत में घबरा उठता है
चोट लगने पर रो उठता है
ठेस लगने पर आह निकालता है
बीती बातों को याद कर व्यथित हो उठता है
किसी की बातों को दिल से लगा बैठता है
पीडा में ऑखों में ऑसू ला देता है
इस पर कितना भी लगाम लगाए
यह बस मे आता ही नहीं
हार मान जाता है इंसान
इसलिए क्योंकि वह इंसान है
मानव है
दिल रखता है सीने में
जब दिल है
तब टूटने पर पीडा भी होगी
ठेस भी लगेगा
क्रोध भी आएगा
नाराजगी भी होगी
वह पत्थर का पुतला नहीं
जीवित इंसान है
उसे फर्क पडता है
जिसे फर्क नहीं पडता वह तो फिर भगवान है
और भगवान तो पृथ्वी पर नहीं रहते
समाज में नहीं रहते
परिवार में नहीं रहते
वे तो स्वर्ग लोक में विचरण करते हैं
वहाँ का मौसम सदाबहार एक सा
पृथ्वी पर तो बदलता रहता है
वैसा ही मन भी तो है
वह तो नहीं मानता
बस अपनी करता है
समझ से परे है
क्यों मन मानता नहीं
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