Thursday, 5 November 2020

ऐसा भी एक रिश्ता

हम सहकारी थे
हमारी टेबल अगल बगल में ही थी
विषय हमारा विपरीत
वह गणित  - विज्ञान की टीचर
मैं हिन्दी साहित्य की
एकदम विपरीत विषय
मुझे गणित कभी रास नहीं आया
गणित में तो 2+ 2=4 होता है
साहित्य में 2+2 = 7 -9 भी हो सकता है
विज्ञान वास्तविकता में
साहित्य कल्पना में
हमारे स्वभाव भी विपरीत
वह कहाँ तेजतर्रार
मैं भीरू
वह एकदम काम में आगे
मैं आराम और शांति से
एक कछुआ की चाल
दूसरा खरगोश की उडान
पर काम तो एक ही साथ
मैं  अव्यवस्थित पहनावा में
कुछ भी पहना फर्क नहीं पड़ता
सोचा भी नहीं
मैं दिखती कैसी हूँ
यहाँ तक कि कभी मोटापा भी नागवार नहीं लगा
वह एकदम टीपटाॅप
देहयष्टि के प्रति भी सतर्क
यह ढाका की साडी
तो यह पैठडी
मेरे पल्ले वह कभी नहीं पडता
न किसी के पेहरावे से मैं आकर्षित
हाँ एक बात अवश्य
मैं उसके व्यक्तित्व से जरूर प्रभावित
अनुशासन और शालीनता
कुछ को वह नजर नहीं आता होगा
पर मुझे बखूबी
एक आदर और सम्मान नजरों में
एक बात ही  समान लगती थी
बातचीत , विचार
गाॅसिप और चुगलखोरी से दूर
कहाँ मै चुपचाप
कहाँ वह हाजिरजवाब
फिर भी खूब बनती
खूब ठनती
बात भी होती
ठहाके भी लगते
एक विश्वास
अंतरंग बात करने में नहीं दोनों में से किसी एक का हिचकना
मनसोक्त बातें
दोस्त नहीं कह सकते क्योकि वैसी दोस्ती तो थी नहीं
उम्र का भी अपना तकाजा
तब यह रिश्ते का क्या नाम
कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं
जिन्हें नाम की जरूरत नहीं
वह भावना से जुडा होता है
भाव और भावना
यह तो वही समझ सकता है
जिसके पास वह हो

No comments:

Post a Comment