स्त्री और पुरुष समान
एक ही गाडी के दो पहिये
समान समझा क्या किसी ने ??
नहीं ।औरत हमेशा औरत ही रही
मजबूर और कमजोर
जबकि वास्तविकता कुछ और ही बयां करती है
वह तो मजबूत है
देह और दिल दोनों से
समझ समझ का फेर है
जो सह लेती है
पीट लेती है
घर संभाल लेती है
बच्चा जन सकती है
एक घर और भिन्न भिन्न आदतें
भिन्न-भिन्न विचार
सबको समेट कर
तारतम्य बना कर रखती है
सबकी गलतियों पर परदा डालना
सबकी ताकत बनना
खुद गरल और दूसरों को अमृत
यह तो निस्वार्थ भाव है
वह एक पहिए की वह गाडी है
जिसके बिना दूसरा पहिया एकदम बेकार
औरत है वह
कोई कमजोर नहीं
समान तो है
समान तो अभी भी नहीं समझा जाता
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