संबंधों में गांठ पड जाएं
तब वह पहले जैसी बात नहीं रहती
गांठें खोलने का प्रयास करते हैं
फिर भी वह कहीं न कहीं उलझ ही जाती है
गांठ पडे ही नहीं
ऐसा कुछ करें
यह रस्सी की गांठ नहीं है
मन की गांठ है
जो नित नए रूप लेती है
याद दिलाती रहती है
ज्यादा खींचा तो टूट जाती है
फिर वह पहले जैसा बंध नहीं पाती है
बंधी तब भी गांठ रह ही जाती है
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