पुलिस लाचार खडी थी
पुलिस बेबस थी
पुलिस मुकदर्शक बनी थी
पुलिस मार खा रही थी
अगर मारती तब भी
न मारा तब भी
दोषारोपण पुलिस पर ही
क्या करती
खून खराबा होने देती
गोली चलाती
न जाने कितनी जाने जाती
उसके बाद का मंजर तो और खौफनाक होता
धीरज से काम लिया
अन्नदाता का अपमान नहीं किया
वे रोष मे थे तब भी अपने देश के हैं
यह वह जानती थी
इसलिए संयम से काम ले रही थी
जालियांवाला बाग कांड नहीं दोहराना चाहती थी
वह अंग्रेजों की पुलिस थी यह स्वतंत्र भारत की पुलिस है
कभी-कभी शांति के हथियार का भी प्रयोग करना पडता है
वही हमारी पुलिस ने किया
अब उसकी आलोचना हो या प्रत्यालोचना
जो किया समय की नजाकत को देखते हुए किया
लाल किले तक पहुँचे कैसे ?
जाने क्यों दिया गया
पुलिस बल और पब्लिक बल
यह एक समान नहीं होते
जब जनता सडक पर उतरती है तब समझदारी ही पर्याप्त है
आज स्वयं अस्पताल के बेड पर पडी है
घायल हैं
फिर भी कोई बात नहीं
ये घाव तो भर जाएंगे
अगर गोली चलती तो
तब क्या मंजर होता
गणतंत्र दिवस पर अपने ही लोगों पर प्रहार
यह उसे उचित नहीं लगा
मामला थोड़े में निपट गया
किसान भाईयों को भी अपनी गलती समझ आ रही है
वे भी यह मान रहे हैं
जो हुआ वह तो अच्छा नहीं हुआ
पुलिस की भूमिका काबिले-तारीफ है
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