औरत बंधन में नहीं रहना चाहती
वह स्वतंत्र रहना चाहती है
आज की नारी है
इक्कीसवीं सदी की
वह तो उडान भर रही है
अपने पंख फैला रही है
नई-नई ऊंचाइयों को छू रही है
वह हर आयाम को पार कर रही है
इसका यह मतलब नहीं
वह स्वछन्द रहना चाहती है
वह भी बंधन में बंधना चाहती है
प्यार के
दुलार के
समर्पण के
सम्मान के
अधिकार के
ये सब उसे जहाँ मिलें
उसका कोमलांगी स्वरूप स्वयं बाहर आ जाता है
निखर उठता है
ममता हिलोरे लेने रखती है
वह तो स्वभाव से ही कोमल है
कठोरता तो उसने कर्तव्य के कारण ओढ रखी है
अंतर्मन में वही पुरानी नारी है
प्रेयसी है पत्नी है
उसको प्यार देकर तो देखें
वह तो पूर्ण भाव से समर्पण करती है
वह भी बंधना चाहती है
बलपूर्वक नहीं प्रेम से
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