अब तक जी रही थी
दूसरो के लिए
उनकी इच्छा सर्वोपरि
हर सदस्य का ध्यान रखती
खाना - पीना
पहनना - ओढना
पढना - लिखना
सब कुछ ध्यान रखती
बस अपने को छोडकर
अब वही सब छोड़कर चले गए
मुझे अपना ख्याल रखने को कह गए
अब अपना ख्याल रखती हूँ
सुबह-सुबह सैर पर जाती हूँ
बिना चीनी की चाय पीती हूँ
सूखी रोटी बिना घी चुपड़ी खाती हूँ
बिना तेल - मसाला की सब्जी बनाती हूँ
भगवान का नाम जपती हूँ
नियम से स्नान - ध्यान करती हूँ
सबसे प्रेम से बोलती हूँ
ऐसा तब भी लगता है
कि कहीं कुछ छूट गया
जब जीना था अपनी मर्जी से
तब तो जीया नहीं
अब शरीर की मजबूरी है
या मर्जी कह लो
ऐसे ही जीना है
इच्छा - अनिच्छा का कहीं प्रश्न नहीं
बस निर्लिप्त भाव से जीना है
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