आज सुबह से ही उमा जी की खूब खातिरदारी हो रही है
हर महीने की पहली तारीख को उनके साथ ऐसा ही होता है।
सबके चेहरे खिले हुए
पोते - पोती उनके पास मंडराते हुए
बहू उनकी पसंद का नाश्ता तैयार करते हुए
अच्छी सी साडी निकाली जाती है उनके पहनने के लिए
वैसे तो वे बाहर जाती नहीं
उनके पैरों में दर्द जो रहता है
बस आज के दिन जाती है
बेटा मोटर साईकिल पर बिठाकर ले जाता है
वहाँ जाकर वे अंगूठा लगाती है हाथों में रुपयों की गड्डी मिलती है
वह उसमें से कुछ रूपये निकलकर बेटे को दे देती है
आते समय उन्हीं रुपयों से बच्चों के लिए मिठाई - नमकीन ले लेती है
कभी-कभी कपडे भी ले लेती है
घर पर जाते ही बच्चे दादी को घेर कर खडे हो जाते हैं
क्या करें वे भी
बेटा बेकार है
कुछ काम - धंधा नहीं करता
घर का खर्चा उनकी ही पेंशन से चलता है
पति सरकारी नौकरी में जो थे
मरने के बाद अब उमा जी को मिलती है
वे ही एक सहारा है
जबकि इस समय उन्हें सहारे की जरूरत है
बुढापा है
पता नहीं कितनी उम्र है
बहुत सारी शारीरिक तकलीफ है फिर भी वे जीना चाहती हैं
पहले बेटे - बेटी के लिए
अब पोते - पोती के लिए
यही डर हमेशा सताता है कि मैं न रहूंगी तो इनका क्या होगा
यह पेंशन ही तो सहारा है
माँ है न
उसका कर्तव्य तो कभी खत्म हो नहीं सकता जब तक वह जीए
जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती
बच्चों के बच्चों की भी जिम्मेदारी
बस ईश्वर से हाथ जोड़ कहती है जब तक ये पोते - पोती बडे न हो जाएं
मुझे मत बुलाना
नहीं तो कैसे इनका गुजारा होगा ।
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