Tuesday, 19 October 2021

भाग बिना नर पावत नाही

कितनी खुशी होती थी
जब संध्या को एक चक्कर तो जरूर लगा आते थे
अपने खेतों का
वह धान की हरी - भरी बालियो को झूमते देख
ऐसा लगता था स्वयं पर इतरा रही है
हम भी मन में न जाने कितनी इच्छाओं को पाल रखे थे
अनाज आएगा तब यह होगा वह होगा
सब धरी की धरी रह गई
न जाने किसकी नजर लग गई
अचानक अंधड चला
तूफान और आंधी ने अपना रूप दिखाया
आसमान में बिजली कडकी
मुसलाधार बारिश
सब तहस नहस
देखते ही देखते सब खाक में
हम विवश कुछ न कर पाएं
प्रकृति के आगे किसका चलता है
वैसा ही तो मनुष्य का भाग्य है
कभी-कभी सारी चतुराई धरी की धरी रह जाती है
एक अंधड बरसों की तपस्या पर पानी फेर जाता है
जिंदगी तबाह कर जाता है
खुशी को गम में बदल देता है
ऐसा गम जो कभी न मिटें
हर खुशी पर हावी
खुश भी न होने दें
एक गम हजार खुशियों पर भारी
जिंदगी तब भी चलती रहती है
ऐसा लगता है सब कुछ सही है
पर होता नहीं है
सही भी है
   सकल पदारथ या जग माही
       भाग बिना नर पावत नाही

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