मैं कर्ण हूँ सूतपुत्र
हाँ यही पहचान है मेरी
जब तक यह पहचान थी
मैं मजबूत था
जता रहा था जैसे संसार को
जाति कोई मायने नहीं रखती
वंश और खानदान भी
मन में भले कसक थी
कमजोर उस दिन हुआ
जिस दिन मुझे पता चला
मैं सूतपुत्र नहीं सूर्यपुत्र हूँ
मैं हस्तिनापुर की राजमाता कुंती का पुत्र हूँ
पांच वीर भाईयों का जेष्ठ भ्राता हूँ
तब मैं हारा था माँ
मैं विवश हो गया था
शस्त्र कैसे उठाता
उसके पीछे तुम कारण थी माॅ
तुम्हारे ऑसू कैसे देखता
तुम्हें संतान विहीन कैसे कर देता
माता तो तुम मेरी भी थी
वह जग-जाहिर नहीं था
तुम्हारे सम्मान का प्रश्न था
जिस पुत्र को विवश माता ने गंगा में बहाया था
वह पुत्र आज उनके जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्हें समाज के सामने विवश कर दे
वह कर्ण को अपना पुत्र स्वीकार करें
मेरी माता पर ऊंगली उठे
बस इसलिए कि मुझे नाम मिले
राज्य मिले
मैं इतना स्वार्थी कैसे होता
तुम्हारा यह पुत्र तो दानवीर कहलाता है
अपनी माता को खाली हाथ कैसे जाने देता
आज मैं हारा हूँ
युद्ध के पहले ही मैं हार गया हूँ
अर्जुन पर बाण चलाना
अपने अनुज पर
अब यह तो वहीं तय होगा
कुरुक्षेत्र के मैदान में ।
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